Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान--मुंशी प्रेमचंद


होरी ने मीठे प्रतिवाद के साथ कहा -- यह तो तुम झूठ बोलती हो भाभी! बिना कुछ रस पाये थोड़े ही आता था। चिड़िया एक बार परच जाती है, तभी दूसरी बार आँगन में आती है।
'चल झूठे। '
'आँखों से न ताकती रही हो; लेकिन तुम्हारा मन तो ताकता ही था; बल्कि बुलाता था। '
'अच्छा रहने दो, बड़े आए अन्तरजामी बन के। तुम्हें बार-बार मँड़राते देख के मुझे दया आ जाती थी, नहीं तुम कोई ऐसे बाँके जवान न थे। '
हुसेनी एक पैसे का नमक लेने आ गया और यह परिहास बन्द हो गया। हुसेनी नमक लेकर चला गया, तो दुलारी ने फिर कहा -- गोबर के पास क्यों नहीं चले जाते। देखते भी आओगे और साइत कुछ मिल भी जाय।
होरी निराश मन से बोला -- वह कुछ न देगा। लड़के चार पैसे कमाने लगते हैं, तो उनकी आँखें फिर जाती हैं। मैं तो बेहयाई करने को तैयार था; लेकिन धनिया नहीं मानती। उसकी मरज़ी बिना चला जाऊँ तो घर में रहना अपाढ़ कर दे। उसका सुभाव तो जानती हो।
दुलारी ने कटाक्ष करके कहा -- तुम तो मेहरिया के जैसे ग़ुलाम हो गये।
'तुमने पूछा ही नहीं तो क्या करता? '
'मेरी ग़ुलामी करने को कहते तो मैंने लिखा लिया होता, सच!
'तो अब से क्या बिगड़ा है, लिखा लो न। दो सौ में लिखता हूँ, इन दामों महँगा नहीं हूँ। '
'तब धनिया से तो न बोलोगे? '
'नहीं, कहो क़सम खाऊँ। '
'और जो बोले? '
'तो मेरी जीभ काट लेना। '
'अच्छा तो जाओ, घर ठीक-ठाक करो, मैं रुपए दे दूँगी। '
होरी ने सजल नेत्रों से दुलारी के पाँव पकड़ लिये। भावावेश से मुँह बन्द हो गया। सहुआइन ने पाँव खींचकर कहा -- अब यही सरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं साल-भर के भीतर अपने रुपए सूद-समेत कान पकड़कर लूँगी। तुम तो व्यवहार के ऐसे सच्चे नहीं हो; लेकिन धनिया पर मुझे विश्वास है। सुना पण्डित तुमसे बहुत बिगड़े हुए हैं। कहते हैं, इसे गाँव से निकालकर नहीं छोड़ा तो बाह्मण नहीं। तुम सिलिया को निकाल बाहर क्यों नहीं करते? बैठे-बैठायें झगड़ा मोल ले लिया।
'धनिया उसे रखे हुए है, मैं क्या करूँ। '
'सुना है, पण्डित कासी गये थे। वहाँ एक बड़ा नामी विद्वान् पण्डित है। वह पाँच सौ माँगता है। तब परासचित करायेगा। भला, पूछो ऐसा अँधेर नहीं हुआ है। जब धरम नष्ट हो गया, तो
एक नहीं हज़ार परासचित करो, इसे क्या होता है। तुम्हारे हाथ का छुआ पानी कोई न पियेगा, चाहे जितना परासचित करो। '
होरी यहाँ से घर चला, तो उसका दिल उछल रहा था। जीवन में ऐसा सुखद अनुभव उसे न हुआ था। रास्ते में शोभा के घर गया और सगाई लेकर चलने के लिए नेवता दे आया। फिर दोनों दातादीन के पास सगाई की सायत पूछने गये। वहाँ से आकर द्वार पर सगाई की तैयारियों की सलाह करने लगे। धनिया ने बाहर निकलकर कहा -- पहर रात गयी, अभी रोटी खाने की बेला नहीं आयी? खाकर बैठो। गपड़चौथ करने को तो सारी रात पड़ी है।
होरी ने उसे भी परामर्श में शरीक होने का अनुरोध करते हुए कहा -- इसी सहालग में लगन ठीक हुआ है। बता, क्या-क्या सामान लाना चाहिए। मुझे तो कुछ मालूम नहीं।
'जब कुछ मालूम ही नहीं, तो सलाह करने क्या बैठे हो। रुपए-पैसे का डौल भी हुआ कि मन की मिठाई खा रहे हो। '
होरी ने गर्व से कहा -- तुझे इससे क्या मतलब। तू इतना बता दे क्या-क्या सामान लाना होगा?
'तो मैं ऐसी मन की मिठाई नहीं खाती। '
'तू इतना बता दे कि हमारी बहनों के ब्याह में क्या-क्या सामान आया था। '
'पहले यह बता दो, रुपए मिल गये? '
'हाँ, मिल गये, और नहीं क्या भंग खायी हो। '
'तो पहले चलकर खा लो। फिर सलाह करेंगे। ' मगर जब उसने सुना कि दुलारी से बातचीत हुई है, तो नाक सिकोड़ कर बोली -- उससे रुपए लेकर आज तक कोई उरिन हुआ है? चुड़ैल कितना कसकर सूद लेती है!
'लेकिन करता क्या? दूसरा देता कौन है। '
'यह क्यों नहीं कहते कि इसी बहाने दो गाल हँसने-बोलने गया था। बूढ़े हो गये, पर यह बान न गयी। '
'तू तो धनिया, कभी-कभी बच्चों की-सी बातें करने लगती है। मेरे-जैसे फटेहालों से वह हँस-बोलेगी? सीधे मुँह बात तो करती नहीं। '
'तुम-जैसों को छोड़कर उसके पास और जायगा ही कौन? '
'उसके द्वार पर अच्छे-अच्छे नाक रगड़ते हैं, धनिया, तू क्या जाने। उसके पास लच्छमी है। '
'उसने ज़रा-सी हामी भर दी, तुम चारों ओर ख़ुशख़बरी लेकर दौड़े। '
'हामी नहीं भर दी, पक्का वादा किया है। '
होरी रोटी खाने गया और शोभा अपने घर चला गया, तो सोना सिलिया के साथ बाहर निकली। वह द्वार पर खड़ी सारी बातें सुन रही थी। उसकी सगाई के लिए दो सौ रुपए दुलारी से उधार लिये जा रहे हैं, यह बात उसके पेट में इस तरह खलबली मचा रही थी, जैसे ताज़ा चूना पानी में पड़ गया हो। द्वार पर एक कुप्पी जल रही थी, जिससे ताक के ऊपर की दीवार काली हो गयी थी। दोनों बैल नाँद में सानी खा रहे थे और कुत्ता ज़मीन पर टुकड़े के इन्तज़ार में बैठा हुआ था।
दोनों युवतियाँ बैलों की चरनी के पास आकर खड़ी हो गयीं। सोना बोली -- तूने कुछ सुना? दादा सहुआइन से मेरी सगाई के लिए दो सौ रुपए उधार ले रहे हैं।
सिलिया घर का रत्ती-रत्ती हाल जानती थी। बोली-घर में पैसा नहीं है, तो क्या करें?
सोना ने सामने के काले वृक्षों की ओर ताकते हुए कहा -- मैं ऐसा नहीं करना चाहती, जिसमें माँ-बाप को कर्जा लेना पड़े। कहाँ से देंगे बेचारे, बता! पहले ही क़रज़ के बोझ से दबे हुए हैं। दो सौ और ले लेंगे, तो बोझा और भारी होगा कि नहीं?
'बिना दान-दहेज के बड़े आदमियों का कहीं ब्याह होता है पगली? बिना दहेज के तो कोई बूढ़ा-ठेला ही मिलेगा। जायगी बूढ़े के साथ? '
'बूढ़े के साथ क्यों जाऊँ? भैया बूढ़े थे जो झुनिया को ले आये। उन्हें किसने कै पैसे दहेज में दिये थे? '
'उसमें बाप-दादा का नाम डूबता है। '
'मैं तो सोनारीवालों से कह दूँगी, अगर तुमने ऐसा पैसा भी दहेज लिया, तो मैं तुमसे ब्याह न करूँगी। ' सोना का विवाह सोनारी के एक धनी किसान के लड़के से ठीक हुआ था।
'और जो वह कह दें, कि मैं क्या करूँ, तुम्हारे बाप देते हैं, मेरे बाप लेते हैं, इसमें मेरा क्या अख़्तियार है? '

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